कर्ण का जन्म कुन्ती को मिले एक वरदान के फलस्वरूप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब एक बार दुर्वासा ऋषि उनके पिता के महल में पधारे।
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कुन्ती ने पूरे एक वर्ष तक ऋषि की सेवा अत्यंत निष्ठा और समर्पण से की।
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उनकी इस सेवा से प्रसन्न होकर, ऋषि दुर्वासा ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह देखा कि पाण्डु से उसे सन्तान प्राप्ति नहीं हो सकेगी।
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उन्होंने कुन्ती को यह वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे सन्तान उत्पन्न कर सकती है।
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कुन्ती के मन में उत्सुकता जागी और उसने कुँआरेपन में ही सूर्य देव का ध्यान किया।
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सूर्य देव प्रकट हुए और उसकी नाभि को छूकर उसके गर्भ में प्रवेश किया।
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मंत्रों द्वारा अपने पुत्र को वहां स्थापित किया। समय आने पर, कुन्ती के गर्भ से एक बालक उत्पन्न हुआ
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जो तेज़ में सूर्य के समान था। वह जन्म से ही कवच और कुण्डल धारण किए हुए था, जो उसके शरीर से जुड़े हुए थे।
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इस प्रकार, महान योद्धा कर्ण का जन्म हुआ और उसकी प्रारंभिक जीवन यात्रा का आरंभ हुआ।
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